Friday, January 11, 2013

वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है

"वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है ,
और रिश्ते मर गए हैं सच के सदमें से  
बोझिल सी रातों में सर्द से हालात सा मेरा वजूद
छल चुके अहसास को ओढ़े है इक रजाई सा
और वह दस्तावेज़ जिसके जर्द से पन्ने जरूरत बन चुके हैं
उस पर दर्ज वह दस्तखत गुजरे जमाने की लिखी भाषा है
कौन पढता है उसे ?
जिन्दगी यदि लेखपालों की बही का खसरा है
जिन्दगी यदि दर्द बेंचते शायर का मिसरा है
जिन्दगी यदि पोस्ट मार्टम में दर्ज मेरा बिसरा है
जिन्दगी तेरी है ...तू रख ले इसे
वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है
आज इसमें दर्ज कर दे मेरी भी शहादत
रूह भी रुखसत हो रही है रवानगी की रस्म पूरी कर 
ये दुनिया तेरी है तो मेरी हो नहीं सकती
मैं जाता हूँ
वो चमचे और होंगे
जो जिन्दगी के लिए करते थे तेरी बंदगी
वो कायर ...वो शायर ...वो पण्डे मौलवी कितने
ये दुनिया गर तेरी जमींदारी है तो चला जाता हूँ मैं
तू खुदा है तो खुद्दार मैं भी हूँ
तू ईश्वर  है तो आकार मैं भी हूँ
तुझे दंभ है इतना तो दमदार मैं भी हूँ   
मैं जाता हूँ ...तह कर के रख ले अपना आसमान ऊपर वाले
जमीन तेरी है तो तू अपने पास रखले
जिन्दगी मेरी गर समझता है कि तेरी ही अमानत है तो रख ले तू यहाँ 
मैं खाली हाथ आया था
मैं खाली हाथ जाता हूँ
जिया था हनक के साथ
मरूँगा खनक के साथ
खनक के साथ एक खामियाजा छोड़ जाऊंगा
पर याद रख
इसलिए जीने का हक़ है मुझे
क्योंकि मैं मरना जानता हूँ
वक्त की टूटी घड़ी दीवार पर अब भी धड़कती है .
" ---- राजीव चतुर्वेदी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

धक्का समय का लगता है, समय को नहीं।