Sunday, December 22, 2013

मैं हवा हूँ मेरे मित्र, मेरे साथ चाहो तो बहो वरना घरों में चुपचाप रहो

" मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना घरों में चुपचाप रहो
तुम पर दर ...उस पर बाजे से बजते दरवाजे हैं
हर मौसम में खीसें निपोरती खिड़कियाँ हैं
मौसम को कमरे में बंद करने का दंभ है
सांसारिक सम्बन्ध है ...काम का अनुबंध है ...सुविधाओं का प्रबंध है
संवेदनाओं का पाखंडी निबंध है
जिसमें शब्दों की बाढ़ किनारे छू कर लौट आती है हर बार
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं
न दर है न दरवाजा न खिड़की न रोशनदान कोई
कोई बंधन भी नहीं
बहते लोगों के सम्बन्ध नहीं होती
स्वतंत्र लोगों के अनुबंध नहीं होते
निश्छल लोगों के प्रबंध नहीं होते
निर्बाध वेग का निबंध कैसा ?
मैं हवा हूँ मेरे मित्र
मेरे साथ चाहो तो बहो
वरना बाहर के कोलाहल से
अपने अन्दर के सन्नाटे का द्वंद्व सहो
और कुछ न कहो

देखना एक दिन मैं अपने प्रवाह में लीन हो जाऊंगा
और तुम अपने ही अथाह में विलीन हो जाओगे
तब यह दर ...यह दरवाजे ...यह खिड़कियाँ
तुम्हें हर पूछने वाले से कह देंगे
बहुत कुछ सह गया है वह
हवा में बह गया है वह
चुपके से ." ----- राजीव चतुर्वेदी

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

अदृश्य पर प्रभावी..