Monday, July 14, 2014

सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था

"हमारे और तुम्हारे बीच सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था
सुना है वह अब नहीं रहा
यादों में
वादों में
इरादों में
मुरादों में
वक्त की आरी से झाड़ते बुरादों में
वह अब कहीं भी नहीं है
क्यारी में
आरी में
फ्रिज में रखी तरकारी में
बंगले के गमलों में
फुलवारी में
जिस सभ्यता के हाथों में आरीयाँ थी
जिन्होंने जंगल काटे
आज उन्हीं की जुबान पर आरियाँ हैं
जंगल काटने के हर आरोप को काटती हुयी
सुना है जंगल काटने से बहुत चिंतित हैं
वह सभी लोग
जिनके घर पर सोफे हैं दीवान है
चौखटें हैं दरवाजे हैं
आयुर्वेदिक औषधियां हैं
लगता तो है यही
यहाँ हर आरी पर
वन महोत्सव की तैयारी की जिम्मेदारी है
जंगल इस सदी के दाधीच हैं
जिनकी हड्डियों की यानी लकड़ियों की
सभ्यता को बहुत जरूरत है
बरगद की बोनसाई बनते लोग आज जंगल के प्रति संवेदना की बोनसाई उगा रहे हैं
सुना है विश्व वन महोत्सव के बहाने
कुछ अभिजात्य लोग
अपने ही अंतःकरण के गले में टाई बांधे
जंगल में मंगल मना रहे हैं
और दूर
इस साजिश से सहमी तितली तुतलाती है
शब्दकोष में दर्ज बसंत की परिभाषा
उसको साजिश सी लगती है
देवदार के पेड़ जूझते दावानल से उनको देखो
सदियों से जो नदियाँ बहती आतीं देखो
कलकल करती कालखण्ड से क्या कहती हैं ?
हर क्यारी की चौकीदारी
जैसे आरी की हो जिम्मेदारी
जागरूक जंगल के कातिल
आज उसी जंगल का शोक मनाते शोर कर रहे
कातिल आज मसीहा बनने निकल पड़ा है
जंगल के कातिल ने मंगल खूब मनाया
पिछले साल के कितने पौधे पनपे कितने नहीं रहे
इस सवाल का उत्तर लावारिस सा छोड़
टाई बाँध कर सरकारी से इक नौकर ने बकरी के खाने को शायद फिर से पौधा एक लगाया

हमारे और तुम्हारे बीच सभ्यता के सफ़र में एक जंगल पड़ता था
सुना है वह अब नहीं रहा." ---- राजीव चतुर्वेदी



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