Tuesday, May 26, 2015

भारत की राजनीति की असमंजस का आकार देखें ...

"भारत की राजनीति की असमंजस का आकार देखें ... पूंजीवाद प्रवृति है साम्यवाद /समाजवाद प्रतिक्रिया ...लोकतंत्र "लोक" की सतत इच्छा है ...समाज के मुट्ठीभर किन्तु ताकतवर /गब्बर लोगों के विरुद्ध बहुसंख्यक कमजोरों का सहकारिता प्रयास है जो पूर्ण तह कभी सफल नहीं होता . पूंजीवाद मानव की मूल प्रवृति है इसके प्रतिक्रिया में जब वामपंथी साम्यवादी /समाजवादी आन्दोलन आये तो साम्यवादी /समाजवादी नेता सड़क पर मुंह से चीखते थे --"धन और धरती बाँट के रहेगी " और अपने अंतर्मन में आगे कहते थे -- "अपनी अपनी छोड़ कर " . चूंकि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद /समाजवाद आया इस लिए इन आन्दोलनों के प्रणेता भी प्रवृति और वृत्ति से पूंजीवादी जातियों से ही थे . कार्ल मार्क्स यहूदी थे तो राममनोहर लोहिया मारवाड़ी . चूंकि वामपंथी सोच ने क्रान्ति से तख्ता पलट का हथकंडा अपनाया तो फिर क्रान्ति जहां भी हुयी वहां तानाशाही रही लोकतंत्र की सम्भावना भी नष्ट की जाती रही इसी लिए वामपंथी सोच लोकतंत्र में सदैव असहज हो जाती है ...केजरीवाल की कार्य शैली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के पीछे यह असहजता उनके व्यक्तित्व पर वामपंथी प्रभाव का नतीजा हैं . बहरहाल यहाँ केजरीवाल के बारे में प्रसंगवश नहीं कुसंगवश बात हो गयी . देश की राजनीति आज़ादी से ही नहीं इसके पहले ...बहुत पहले से ही पूंजीवाद और साम्यवाद के असमंजश में रही है ...प्लेटो की रिपब्लिक की अवधारणाओं के पहले ...बहुत पहले महाभारत के शांतिपर्व की राजनीतिक समझ से भी पहले ...ऋग्वेद के साम्यवाद की अवधारणा से भी पहले मानव इतिहास के सबसे पहले गणराज्य यानी Republic के अध्यक्ष गणपति /गणेश के समय से आज़ादी तक और आज़ादी से अब तक भारत राष्ट्र पूंजीवाद और साम्यवाद/समाजवाद के बीच असमंजस में रहा है ...यह असमंजस लोकमान्य बालगंगाधर तिलक में नहीं दिखती पर महात्मा गाँधी में दिखती है ...यह असमंजस संविधान के 42 वें संशोधन में साफ़ साफ़ दिखती है ...यह असमंजस वामपंथ के गर्भ में पलती है और सिंगूर में पूंजीपति टाटा के समर्थन में प्रकट होती है ...यह असमंजस लोहिया के समाजवाद का झंडा उठाये हर फटीचर के नवसामंत/ नवपूंजीपति संस्करण में मिलती है ... यह असमंजस नेहरू में भी थी ,इंदिरा में भी थी अटल बिहारी बाजपेयी में भी थी और नरेंद्र मोदी में भी दिखती है ...दिखे भी क्यों नहीं ? ...वामपंथ को दिया दिखानेवाला चीन अमेरिका के बाद आज पूंजीवाद का सबसे बड़ा ध्रुव है . द्वितीय विश्व युद्ध में रत महाशक्तियों का प्रबंधन ढीला पड़ा और जैसे मवेशीखाने की दीवार गिर गयी हो ...देश आज़ाद होने लगे 1947-48 में लगभग 80 देश आज़ाद हुए राजतन्त्र की राजनीति ने अपना न नाम बदला न नियत सो राजनीति नहीं बदली राजनीति लोकनीति नहीं हो सकी इसलिए राजनीती शास्त्र के सिद्धांत अप्रासंगिक हो गए ...इस शून्य को कभी अर्थशास्त्र कभी समाजशास्त्र के सिद्धांतों से भरा गया तो आध्यात्म और धर्म ने भी घुसपैंठ की ...मार्क्स ने /लेनिन ने /माओ ने राजनीती को अर्थशास्त्र से जोड़ा , चूंकि अर्थशास्त्र की नियति थी पूंजीवादी होना इसलिए मार्क्सवाद दीर्घायु नहीं हो सका और उसकी परिणिति नवपूंजीवाद में हुयी ...गांधी ने राजनीति को आध्यात्म से जोड़ा और जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ा .अम्बेडकर ने राजनीती को समाजशास्त्र के एक पहलू से जोड़ा तो दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीती को समाजशास्त्र के दूसरे पहलू से जोड़ा. चूंकि अम्बेडकर और दीनदयाल उपाध्याय राजनीती को समाजशास्त्र से जोड़ कर देखते थे इसी लिए दोनों की विरासत बाली पार्टियों / नेताओं में समय समय पर सामंजस्य देखा जा सकता है (बसपा और भाजपा ) .दीनदयाल उपाध्याय "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत के प्रणेता हैं जो मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और गाँधी के "ट्रस्टीशिप " और "कल्याणकारी गणराज्य " की अवधारणा से एक वैचारिक त्रिभुज बनाता है ...अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक सोच इसी त्रिभुज में उलझी रही ...शायद नरेंद्र मोदी राजनीति शास्त्र की इसी असमंजस से उबरने की कोशिश में हैं ...राजनीती के अलिखित अध्याय अब समाज शास्त्र से लिए जायेंगे न कि अर्थ शास्त्र से ...नरेंद्र मोदी का मथुरा दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली जा कर उनको स्मरण करना इसका द्योतक है कि राष्ट्रीय राजनीती की दिशा और दशा "एकात्म मानववाद" के सिद्धांत से सामंजस्य बनाने की शुरूआत है ." ----- राजीव चतुर्वेदी

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