Sunday, August 2, 2015

मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?

"विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?


समुद्र मंथनों का मेहनताना मैंने सुरा और सुन्दरी माँगी नहीं थी
सुख तेरे थे, शहर तेरा था, जज्वात मेरे ,जहर मेरा था
बिजलियों की चौंध में जो अँधेरा था वह घर मेरा था
लक्ष्मी की हूक तेरी थी, भूख मेरी थी
एक बंटवारा था न्यारा जिसमें हर सुख तेरा दुःख मेरा था


तुम्हारी कोशिशों के बाद भी मैं शव नहीं था इस लिए शिव कहा तुमने
समय के साथ बढ़ता वंश तेरा साँप सा हर दंश मेरा था


जब भी तुम कभी मेरे मंदिर को आते हो
जानता हूँ तुम जहर भर भर के लाते हो
मैं नहीं मंदिर के अन्दर, जी रहा हूँ तेरे अन्दर घुट घुट के
सोचता हूँ इस शहर में मैं कब तक जी सकूंगा ?
इस जहर को कब तलक मैं पी सकूंगा ?


चलो जाओ यहाँ से जहर फैला के फिर कभी मंदिर के अन्दर नहीं आना
मरीचिका से मोहब्बत है तुम्हें तो सत्य से फिर वास्ता कैसा ?
जहर ले कर चले हो तो मंदिरों का रास्ता कैसा ?


विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?
"
----- राजीव चतुर्वेदी

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